पिछले सप्ताह एक सज्जन ने मेरे क़ुरआन से सम्बन्धित लेख पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि धार्मिक ग्रन्थों का शत-प्रतिशत सुरक्षित रहना सम्भव नहीं है। मैं उनके विचार का पूरी तरह समर्थन करता हूं। क्योंकि ज़माने के परिवर्तन तथा लोगों की नीतियों में बदलाव के कारण ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। परन्तु सारे धार्मिक ग्रन्थों में केवल क़ुरआन को यह विशेषता प्राप्त है कि आज हमारे पास जो क़ुरआन है वह ज्यों का त्यों सुरक्षित है। उसके शब्द वही हैं जो ईश्वर की ओर से अवतरित हुए थे। उनमें से कोई एक शब्द भी नष्ट नहीं हुआ है, न ही ऐसा हुआ है कि कोई शब्द अथवा अक्षर हटा कर उसके स्थान पर कोई और शब्द या अक्षर रख दिया गया हो। उसमें कोई शब्द या अक्षर बढ़ाया भी नहीं गया है, यहाँ तक कि अन्तिम संदेष्टा मुहम्मद सल्ल0 ( जिन पर क़ुरआन का अवतरण हुआ) का अपना कोई शब्द या अक्षर उसमें शामिल भी नहीं हुआ।
हज़रत उस्मान रजि0 (तीसरे खलीफ़ा) के समय में जब क़ुरआन की सरकारी नक्लें इस्लाम के केन्द्रीय स्थानों पर भेजी गईं उनमें से दो प्रतियाँ आज भी पाई जाती हैं। एक ताशक़न्द में और दूसरी इस्तम्बोल में।
जहाँ अल्लाह ने उसके शब्द की सुरक्षा की वहीं उसके अर्थ की सुरक्षा का भी पूर्ण प्रबन्ध किया, इसलिए कि मात्र शब्द का सुरक्षित होना काफी नहीं था क्यों कि अभिप्राय और अर्थ सुरक्षित न हो तो उसमें परिवर्तन निश्चित हो जाता है। यदि आप इतिहास का अध्ययन करें तो पाएंगे कि मुहम्मद सल्ल0 ने अपने साथियों को क़ुरआन याद कराने के साथ साथ उसके अर्थ भी बताए, लोगों ने आप से उनका अर्थ समझा और अपने बाद लोगों तक पहुँचाया। जिन विद्वानों ने मुहम्मद सल्ल0 के प्रवचनों को संकलन करने का प्रबन्ध किया है उन्होंने अपने संग्रह में मुहम्मद सल्ल0 से प्रमाणित क़ुरआन की व्याख्या को भी जगह दी है।
क़रआन की व्याख्या पर आने वाली पुस्तकों में विशेष ऐसी पुस्तकें लिखी गई हैं जिनमें क़ुरआन की व्याख्या हदीस से की गई है। उन व्याख्याओं ( तफ्सीरों) को "तफ्सीर बिल-मासूर" अर्थात् " मुहम्मद सल्ल0 द्वारा प्रमाणित व्याख्या " कहते हैं। जिनमें इमाम सुयूती और इमाम इब्ने-कसीर आदि विद्वानों की तफ्सीरें प्रसिद्ध हैं जिन में उन्होंने हर आयत की व्याख्या हदीस से कर की है, जो वास्तव में अल्लाह ही की ओर से है। क्योंकि क़ुरआन ने स्वयं यह घोषणा कर दी थी " इन्न अलैना बयानहू " ( सूरः क़ियामह 19/29) अर्थात् "इस क़ुरआन की व्याख्या की भी हमने ज़िम्मेवारी ले रखी है।" एक दूसरे स्थान पर कहा गया है कि "(मुहम्मद सल्ल0) कोई बात अपनी ओर से नहीं कहते" अपितु वह अल्लाह की ओर से प्रकाशना होती है। ज्ञात यह हुआ कि "तफ्सीर बिर मासूर" नामक व्याख्याएं वास्तव में अल्लाह ही की अवतरित की हुई व्याख्याएं हैं।
महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं ईश्वर ने जब क़ुरआन को अवतरित किया तो इसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी ले ली, क्यों कि क़ुरआन के बाद अब कोई ग्रन्थ अवतरित होने वाला नहीं था और क़ुरआन से पूर्व जितने भी ग्रन्थ अवतरित हुए थे उनके मानने वालों ने उन में परिवर्तन कर दिया था इसी लिए सब से पहले क़ुरआन की शैली मानव शैली से भिन्न रखी फिर उसकी सुरक्षा की भी ज़िम्मेदारी ले ली। कुहआन कहता हैः " रहा यह ज़िक्र ( कुरआन) तो इसको हमने उतारा है और हम स्वयं इसके रक्षक हैं"। ( आयत 15 आयत 9)
यह ऐसी सच्चाई है जिसकी गवाही कितने गैर-मुस्लिम विद्वानों ने भी दी है। एक ईसाई विद्वान मिस्टर विल्यम मयूर कहते हैं- " संसार में क़ुरआन के अतिरिक्त कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं पाया जाता जिसका अक्षर एवं शैली बारह शताब्दि गुज़रने के बावजूद पूर्ण रूप में सुरक्षित हो"।
3 टिप्पणियां:
ज़बान ईश्वर का बहुत बड़ा उपकार है। उस से भली बात कही जाए अथवा चुप रहा जाए।
तुम जो बात भी बालते हो,अथवा लिखते हो नोट कर ली जाती है।
अल्लाह ही हमारा रखवाला है वही कुरआन मजीद का भी रखवाला है
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