बुधवार, 14 अप्रैल 2010

एक संदेह

कल सजीव भाई ने हमारे ब्लाँग के तीन लेखों पर अलग अलग एक ही टिप्पणी डाली जिसका सार यह है कि:
(1) मुस्लिम हर धर्म की समानता की बात करता है परन्तु इस्लाम, क़ुरआन और मुहम्मद सल्ल0 को ऊपर दिखाना चाहता है। क्यों...?
(2) मुहम्मद सल्ल0 की तुलना अन्य धार्मिक ग्रन्थों से मत करो।
(3) क़ुरआन अच्छा ग्रन्थ है परन्तु उसमें समयानुसार कुछ चैंज हो जाए तो अच्छा होता।

यह विचार अधिकांश भाइयों का है इस लिए संक्षिप्त में पोस्ट के रूप में इसका उत्तर देने की कोशिश की जा रही है। आशा है कि मेरी प्रेमवाणी पर चिंतन मनन किया जाएगा।
जी हाँ! मुस्लिम हर धर्म का सम्मान करता है, उनके गुरुओं को भी बुरा भला नहीं कहता लेकिन सत्य को बताने से भी नहीं चुकता क्यों कि यदि सत्य को न बताया जाए तो लोग अंधकार में पड़े रहेंगे।
(1) सत्य धर्म केवल एक ही हो सकता है, ईश्वर जब एक है तो उसका नियम भी एक ही होगा ना...वही तो इस्लाम है जिसे हर युग में संदेष्टाओं ने लोगों से उसका परिचय कराया..., जिसे संदेष्टाओं के अनुयाई अपनी अपनी भाषा में विभिन्न नाम से जानते थे। अरबी में आज उसी धर्म का नाम इस्लाम है। इसी को सनातन धर्म भी कह सकते हैं। इस धर्म का मूल सार है एक ईश्वर की पूजा...और यह पूजा आज के युग में अन्तिम संदेष्टा मुहम्मद सल्ल0 के बताए हुए नियमानुसार होगी। यह कहना भी सही नहीं कि सारे धर्म एक हैं और ईश्वर तक पहुंचना किसी एक धर्म के पालन पर निर्भर नहीं है...ऐसा इस लिए सही नहीं कि ईश्वर एक है तो सम्पर्क मात्र उसी से होना चाहिए...और उस तक पहुंचने का वही रास्ता है जिसे उसने स्वयं बता दिया है...और एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक सीधी लाइन एक ही हो सकती है, यदि इनसान ईश्वर को संसार का बनाने वाला मानता है तो यह भी मानना पड़ेगा कि वह शासक भी है और शासक के आज्ञापालन का नियम और क़ानून एक ही हो सकता है।

(2) आपका कहना कि मुहम्मद को मुहम्मद ही रहने दो उनके समर्थन के लिए अन्य धार्मिक ग्रन्थों का हवाला न पेश करो... तो इस सम्बन्ध में जानने की बात यह है कि वह अन्तिम अवतार हैं... जिनके आने की भविष्यवाणी केवल हिन्दू ग्रन्थों ही नहीं अपितु प्रत्येक धार्मिक ग्रन्थों ने की थी। क्योंकि ईश्वर ने एक लाख चौबीस हज़ार संदेष्टाओं को अलग अलग देशों में मात्र इस लिए भेजा था कि उस समय मानव अलग अलग टोलियों में बटे हुए थे, यातायात के साधन नहीं थे, एक देश का दूसरे देश से सम्पर्क नहीं था...एक दूसरे की भाषा को सीखने का प्रचलन भी नहीं था। अतः आवश्यकता थी कि ईश्वर मानव मार्गदर्शन हेतु हर भाषा तथा हर देश में अलग अलग संदेष्टा भेजे...परन्तु सब का संदेश एक ही रहा और सारे संदेष्टाओं ने अपने अपने अनुयाइयों को अन्तिम अवतार के आने की सूचना भी दी जो अब तक उनके ग्रन्थों में मौजूद है। जब सातवी शताब्दी ईसवी में भौतिक, सामाजिक और राजनीतिक उन्नति ने दुनिया को एक कर दिया तो सब से अन्त में ईश्वर ने मुहम्मद सल्ल0 पर अन्तिम संदेश उतारा। इसी लिए वह जगत-गरु हैं, सारे धर्मों के गुरू।
मेरे भाई! निष्पक्ष हो कर इस्लाम का अध्ययन करने की ज़रूरत है पता चल जाएगा कि जिसका हम विरोद्ध करने बैठे हैं यह स्वयं हमारी धरोहर है। हम आपके शुभचिंतक हैं,स्वार्थी नहीं, हमें इस से आखिर क्या लाभ होने वाला है, बस हमें सहानुभूति प्रिय है, सच्ची हमदर्दी का हक़ अदा करना हमारा कर्तव्य है। हमारा काम पहुंचा देना है मानना न मानना आपके एख्तियार में है।

(3) कुरआन ईश्वर की वाणी है यह मानव रचना नहीं, न हो सकता है, क्योंकि आज तक क़ुरआन स्वयं चैलेंज कर रहा है (यदि तुम क़ुरआन के सम्बन्ध में संदेह में पड़े हो तो उसके समान एक सूरः ही ले आओ यदि तुम सच्चे हो ) (2:23) पर इतिहास साक्षी है कि आज तक कोई क़ुरआन के समान न एक टूकड़ा बना सका है और न बना सकता है। जबकि मुहम्मद सल्ल0 जिन पर क़ुरआन उतरा न लिखना जानते थे न पढ़ना। मुहम्मद सल्ल0 की बातें जिनको हदीस कहा जाता है उनमें और क़रआन में आसमान और ज़मीन का अंतर है। तात्पर्य यह कि क़ुरआन कोई मानव रचना नहीं कि उसमें समयानुसार परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़े क्यों कि इंसान अपने युग के अनुसार सोचता है इसी लिए मानव रचित ग्रन्थों में इसकी आवश्यकता पड़ सकती है लेकिन क़ुरआन उस ईश्वर की वाणी है जो स्वयं संसार का सृष्टा है। सृष्टा ही सृष्टि की आवश्यकताओं से भलीभांति अवगत होता है। फिर आज तक इसका एक एक शब्द भी सुरक्षित है।

आपका यह संदेह कि यदि क़ुरआन ईश्वर की वाणी होता तो बिस्मिमिल्लाह से शुरू न किया जाता...जिसका अर्थ होता है शुरू करता हूं अल्लाह के नाम से... तो इसका उत्तर यह है कि यहाँ ईश्वर ने अपने शब्दों में मानव को सिखाया है कि उसकी प्रशंसा कैसे की जाए ताकि मानव ईश्वर के बताए हुऐ नियमानुसार ईश्वर की प्रशंसा करे। शायद मेरी बात स्पष्ट है। ईश्वर की आप पर दया हो।