धर्म के सम्बन्ध में कोई जबर्दस्ती नहीं। हाँ! इस विषय पर र्वाता अवश्य होनी चाहिए। वास्तविकता यह है कि
यह प्रश्न ही बेकार है कि हमें किस धर्म को मानना चाहिए, क्यों कि धर्म तो ईश्वर की ओर से एक ही आयाहै, अनेक नहीं। वह कैसे ? इस लिए कि :
(1) हमारा ईश्वर एक है अनेक नहीं।
(2) हम सब की रचना एक ही प्रकार से होती आ रही है अन्य प्रकार से नहीं।
(3) हम सब एक ही प्रकार की धातु (वीर्य) से बनते है।
(4) तथा हम सब एक ही (प्रथम) माता पिता की संतान हैं।
तो फिर धर्म अलग अलग कैसे हो सकता है ? लेकिन आज हम अलग अलग धर्म देख रहे हैं इस लिए आज उन धर्मों में से मुक्ति के लिए किसी एक धर्म का चयन करने की आवश्यकता है। लेकिन यहाँ समस्सया यह है कि आज हर धर्म के मानने वाले अपने धर्म को सत्य मान रहे हैं तो इस सम्बन्ध में मापदण्ड क्या हो सकता है... आइए देखते हैं...
(1) पहली बात यह है कि उस धर्म ने एक ईश्वर की कल्पना सिद्ध की हो।
(2) दूसरी बात यह है कि उसका एक संदेष्टा हो जिसकी जीवनी पूर्ण रूप में शुद्ध एवं उजव्वल हो। वह भी
स्वयं को मानव के रूप में पेश करता हों, ईश्वर के रूप में नहीं।
(3) तीसरी बात यह है कि उस धर्म का ग्रन्थ हर प्रकार के विभेद से पाक हो जिसको चुनौति न दी जा सकती हो।
(4) चौथी बात यह है कि उस धर्म ने एक पूर्ण जीवन व्यवस्था पेश किया हो। अर्थात उसका सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक भाग में हो।
(5) पाँचवीं बात यह कि उस शिक्षा के आधार पर हर युग में एक शान्तिपूर्ण समाज की स्थापना हो सकती हो ।
(6) छट्ठी बात यह कि उस धर्म ने मानव को विभिन्न जातियों में विभाजित न किया हो। और सब को बराबर का अधिकार प्रदान करता हो ।
यह 6 गुण जिस धर्म में पाए जाएं वही धर्म "मानव धर्म" हो सकता है।
1 टिप्पणी:
सार्थक एवं सारगर्भित आलेख ....
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