मंगलवार, 10 नवंबर 2009

इस्लामः मानव के लिए बहुमूल्य उपहार

इस्लाम क्या है? और इनसान को क्या संदेश देता है? खेद की बात यह है कि इसे भलि-भांति समझा नहीं गया। शताब्दियों से भारत में हिन्दू मुस्लिम एक साथ रहते आ रहे हैं पर उनका ज्ञान एक दूसरे के प्रति सूनी सुनाई बातों, दोषपूर्ण विचार और काल्पनिक वृत्तांतों पर आधारित है। ऐसा नहीं होना चाहिए, वास्तविकता को जानने की हर आदमी की कोशिश होनी चाहिए। जहाँ तक हिन्दू धर्म की बात है तो उसके सिद्धांत सबके समक्ष विदित हैं परन्तु इस्लाम के सिद्धांत पर एक प्रकार से काई पोत दी गई है ताकि लोग उसके निकट न हो सकें... बिल्कुल बात यही है... इसे वही व्यक्ति जान सकता है जो निष्पक्ष हो कर उसका अध्ययन करे...इस्लाम को उसके वास्तविक रूप में जानना चाहते हैं तो उसका अध्ययन करके देखें सारे संदेहों का निवारण हो जाएगा। वास्तव में इस्लाम एक इनसान के लिए ईश्वर की ओर से सब से बड़ा उपहार है। इसे आप जानने के इच्छुक हैं तो निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान दें।
एकेश्वरवाद का प्रतीकः इस्लाम का मानव पर सब से बड़ा उपकार यह है कि वह मानव को एकेश्वरवाद की शिक्षा देता है। मात्र आज इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो ईश्वर को हर प्रकार के भागीदार से मुक्त मान कर पूजा-पाट को केवल उसी के लिए समर्पित परने का आदेश देता है। अधिकांश लोग इस्लाम के इस मूल सिद्धांत से अनभिज्ञ हैं जिसके कारण वह {सब धर्म समान है} की बात करते रहते हैं। वास्तव में सारे धर्मों का आधार बहुदेववाद पर है पर इस्लाम पूर्ण एकेश्वरवादी धर्म है। यहाँ किसी साकार सत्ता को उपासना का योग्य नहीं माना जाता। बल्कि जिस शब्द को बोल कर एक व्यक्ति इस्लाम में प्रवेश करता है उसे ही समझ लिया जाए तो इस्लाम के मूल सिद्धान्त को समझने में बहुत आसानी होगी। इसका अर्थ होता है {मैं वचन देता हूं कि अल्लाह (ईश्वर) के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं और मुहम्मद सल्ल0 अल्लाह के अन्तिम संदेष्टा और दूत हैं।} इसका अर्थ समझते हुए, उसे हृदय से बोलने के बाद एक व्यक्ति मुसलमान बन जाता है।
मानव एकताः इस्लामी सिद्धांत के अनुसार सम्पूर्ण मानव की उत्पत्ति प्रथम पुरूष आदम से हुई है, सब की अस्लियत एक है, सारे मानव मानवता के नाते एक कुटुम्ब के समान हैं, इस्लाम में ऊंच नीच, भेद-भाव और जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं। इसी लिए इस्लाम विश्व-बंधुत्व पर विश्वास रखता है। इस सिद्धांत के अनुसार ही प्रत्येक मानव को विश्व-बंधुत्व के सुत्र में बाँधा जा सकता और उन्हें एक धर्म पर एकत्र किया जा सकता है।
मानव एक श्रेष्ठ प्राणि हैः मानव को सारी सृष्टी पर महानता प्राप्त है, संसार की प्रत्येक वस्तुएं मानव हेतु पैदा की गई हैं। और सब चीज़ें उसके अधीन हैं, उनसे जैसे चाहे सेवा ले। इसी लिए मानव के लिए किसी प्रकार उचित नहीं कि स्वयं को सृष्टी की किसी चीज़ के सामने झुका कर अपने सृष्टिकर्ता का अपमान करे। इसी नियमानुसार इस्लाम ने मुर्ति-पूजा को सब से बड़ा पाप घोषित किया क्योंकि एस इनसान अपने हाथ से बनाई हुई मुर्ति के समक्ष स्वयं को झुकाता है, मानो वह यह कहना चाहता है कि ईश्वर की रचना से श्रेष्ट मेरी रचना है तब ही तो ईश्वर की रचना अर्थात स्वंय को अपनी रचना के सामने झुकाता है, क्या इस में मानव का अपमान नहीं ? बल्कि सब से पहले सृष्टिकर्ता का अपमान है।
(जारी)

1 टिप्पणी:

shyam gupta ने कहा…

ब्लोग लेखक महोदय---आप पूर्ण भ्रमित हैं----

१, एकेश्वर बाद---इस्लाम से करोडों साल पहले, केवल एक निराकार ब्रह्म की अवधारणा, सनातन धर्म की है। मोह.सल्ल. अल्लाह की तरफ़ से वचन देते हैं, अर्थात अल्लाह स्वयम की सिद्धि के लिये मोह.सल्ल(एक मानव-पेगम्बर) की मेहरवानी पर है?
२.मानव एकता-- वेदिक धर्म में भी समस्त श्रिष्टि क-मानव सहित--रचयिता परब्रह्म है-यह इस्लाम से करोडों वर्ष पहले कहागया है।
३,श्रेष्ठ्प्राणी--हिन्दू-सनातन-वेदिक--धर्म मानते हैं कि परमात्मा ईश्वर ही सब्का कर्ता है, मानव जो भी करता है वह ईश्वर की ही क्रिति है ,अतः वह कर्तापन के दम्भ से दूर रहता है, मूर्ति बनाकर मानवुसके सामने सिर झुकाने का अर्थ है उस ईश्वर की क्रिति के आगे सिर झुकाना---अरे जो ईश्वर-अल्लाह के बनाये मानव आदि को ही सिर न झुका सका वह ईश्वर का क्या होगा???