बुधवार, 21 अप्रैल 2010

संदेहों का निवारण (2)

 इस्लाम सुधारवादी बनाता है आतंकवादी नही 
इस्लाम ने मानव को हर योग में सुधार की शिक्षा दी और आतंक से दूर रखा बल्कि इस्लाम आया ही इसी लिए ताकि शान्तिपूर्ण समाज की स्थापना हो, कुप्रथाओं का नष्ट हो और समाज में प्रेम की भावनाएं पैदा हों। इसी लिए मुसलमान जहाँ कहीं गए लोगों ने उनके प्रेम-भाव से प्रभावित हो कर उनके धर्म को गले लगा लिया। स्वयं भारत में जब मुहम्मद बिन क़ासिम का आगमन हुआ तो उनके आचरण तथा सद्-व्यवहार से भारतवासी इतने प्रभावित हुए कि भारत के हिन्दुओं ने अपने मन्दिरों में उनका चित्र बना कर सजा लिया। इस्लाम इस बात की अनुमति कदापि नहीं देता कि लोग सुधार के नाम पर मरने मारने के लिए उतारू हो जाएं और यदि कोई मरने मारने पर उतारु हो चुका है तो वह आतंकवादी है सुधारवादी नहीं। इस्लाम का आतंक से कोई सम्बन्ध नहीं, इस्लाम और आतंक ऐसे ही है जैसे आग और पानी। इस्लाम का शाब्दिक अर्थ ही होता है "शान्ति"।

इस्लाम ने हर युग में सुधार किया और आज भी सुधार करना ही उसके वजूद का मूल उद्देश्य है। औऱ सुधार निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। क्यामत की सुबह तक सुधार का यह काम चलता रहेगा। यह भी सही है कि आज मुसलमानों में (इस्लाम में नहीं) कुछ प्रक्रियाएं ऐसी आ गई हैं जिनके कारण लोग इस्लाम को "कुछ मुसलमानों" के व्यवहारिक जीवन से तुलना करके देखने लगे हैं। यहाँ पर मुझे महाकवि टैगोर की बात याद आ रही हैं। उनके साथ एक बार रेल में यात्रा कर रहे थे मौलाना सय्यद सुलैमान नदवी, इस्लाम के इतिहासकार, इन दोनों महान विद्वानों को एक साथ देख कर किसी व्यक्ति ने पूछ दिया कि आज इस्लाम इतनी तेज़ी से क्यों न फैल रहा है जितनी तेज़ी से मुहम्मद सल्ल० और पहले युग में फैसा - सय्यद नदवी साहिब ने टैगोर से इस प्रश्न का उत्तर देने की प्रार्थना की । तब टैगोर ने बताया कि " तब सत्य धर्म की अच्छाइयों और भलाइयों को जानने के लिए लोगों को पुस्तकालयों का रुख़ नहीं करना पड़ता था, वह हर मुसलमान के जीवन ही में विधमान था।"
क्या भारत के मुसलमान गुरु देव की बात पर ध्यान देंगे ? जी हाँ । आज सब से बड़ी बाधा हमारे देशवासियों के लिए कुछ मुसलमानों के घृणित कर्तव्य हैं । आज अन्य लोग अपनी इस धरोहर का विरोध मात्र इस कारण कर रहे हैं कि वह मुसलमानों को उसके अनुसार चलते हुए नहीं देखते।

और हाँ! इस्लाम में सुधार की जहाँ जक बात है तो इस्लामिक ला में ग्रेजुवेशन करने के नाते मैं यह कहना चाहूंगा कि इस्लामी शास्त्र में समयानुसार संशोधन की गुंजाइश रखी गई है। जो क़ुरआन और हदीस की रोशनी में ही होगी। आज भी होती रहती है और इस विषय में एक व्यक्ति अपनी खास राय भी रख सकता है। मिसाल के तौर पर निक़ाब के मस्ला ही को लीजिए, कितने इस्लामी विद्वानों ने कहा कि महिला का चिहरा पर्दा में दाखिल नहीं है। हम ऐसे विद्वानों की राय का सम्मान करते हैं। लेकिन जहाँ तक इस्लामी आस्था की बात हैं तो इसमें कोई ताल मेल नहीं...इसमें कोई समझौता नहीं...कोई सन्धि नहीं...एक लाख चौबीस हज़ार संदेष्टा मानव मार्गदर्शन हेतु भेजे गए जिनमें सब का संदेश यही रहा कि एक अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं। आप जानती हैं कि इस्लाम का मूल स्तम्भ एकेश्वरवाद है, मात्र एक ईश्वर की पूजा...अब यह कैसे हो सकता है कि एक मुसलमान मन्दिर में जाए...और पूजा पाट करे...इसका अर्थ यह नहीं है कि हम दूसरे धर्मों को बुरा भला कहते हैं, पदापि नहीं अपितु हम दूसरे धर्मों का सम्मान करते हैं, उनके धार्मिक गुरुओं के प्रति कोई अपशब्द का प्रयोग नहीं करते...हम गैर-मुस्लिम भाइयों के साथ एक मुस्लिम का सा व्यवहार करते हैं क्योंकि यही इस्लाम की शिक्षा है परन्तु हम अपनी आस्था का सौदा नहीं कर सकते। उदारता के लिए क्या यही रह गया है कि हम अपनी मूल आस्था को त्याग दें...? (शेष अगले पोस्ट पर)

8 टिप्‍पणियां:

Shah Nawaz ने कहा…

सफात आलम साहब, बहुत ही आसान शब्दों में किन्तु गहरे लिए हुए लिखा है आपने. इसके लेखन के लिए आप बधाई के पात्र हैं.

Shah Nawaz ने कहा…

गहरे = गहराई

Taarkeshwar Giri ने कहा…

Ye to puri duniya janti hai ki Musalamn kitne achhe insan hote hain.

MLA ने कहा…

Safat Alam Taimi ji, Aap jo Firdaus ji ke liye likh rahe hai kya usko vah padhengi? Vaise apne achha likha hai.

Ayaz ahmad ने कहा…

सफ़ात आलम साहब आपने बहुत कम लफ़्ज़ो मे अपनी बात को दलीलो के साथ पेश किया

Ayaz ahmad ने कहा…

NICE POST

Saleem Khan ने कहा…

बहुत ही आसान शब्दों में किन्तु गहरे लिए हुए लिखा है

Mohammed Umar Kairanvi ने कहा…

भाई आपने बहन से बात करने का बहुत अच्‍छा अन्‍दाज़ अपनाया है, इस्‍लाम में हर सवाल का जवाब है, किसी एक से जवाब न मिला हो तो हमें यह नहीं सोच लेना चाहिये कि इस्‍लाम के पास जवाब ही नहीं है, अल्‍लाह आपको कामयाबी दे