शनिवार, 1 मई 2010

बंधुआ मज़दूरी और इस्लाम

अन्तराष्ट्रीय कामगार दिवस के अवसर पर भारत के माथे पर एक कलंक "बंधुआ मज़दूरी" की समस्या का वर्णन करना अति आवश्यक है। इस प्रथा ने आज तक भारत के कुछ भागों में आज़ाद इनसानों को उनके इरादों, क्षमताओं तथा जीवन के अधिकारों से वंचित कर रखा है। इस प्रथा को किसी भी धर्म का समर्थन न प्राप्त हुआ और न हो सकता है बल्कि यह भारतीय संविधान के मूल अधिकारों के विरुद्ध है। बंधुआ मज़दूरी को अवैध घोषित किए जाने के बावजूद आज भी यह हमारे भारत में मौजूद है। 
इस लिए आज हम नियम और क़ानून की बात करने की बजाए इस्लामी दृष्टि में इसका विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे और देखेंगे कि बंधुआ मज़दूरी की इस लानत से बचाव के लिए इस्लाम हमारा क्या मार्ग-दर्शन करता है।
ज़ुल्म की मनाहीः

इस्लाम बिना किसी लाग लपेट के न्यान एवं इंसाफ का आदेश देता और ज़ुल्म एवं अन्याय के तमाम रूपों से रोकता है। क़ुरआन में कहा गयाः "न तुम ज़ुल्म को न तुम पर ज़ुल्म किया जाए"। (2:279)
इसी प्रकार हज़रत मुहम्मद सल्ल0 ने फरमायाः " अल्लाह का आह्वान है, ऐ मेरे बंदो! मैंने अपने ऊपर ज़ुल्म को हराम कर रखा है और तुम्हारे लिए भी इसे हराम क़रार दिया है, तो ऐ मेरे बंदो! तुम परस्पर एक दूसरे पर अत्याचार न करो"। (मुस्लिम)
किसी को भी क्षति पहुंचाने पर रोक:

इस्लाम की दृष्टि में सारे इनसान एक अल्लाह के बंदे हैं और एक ही माँ-बाप आदम हव्वा की सन्तान हैं अतः जीवन के आनन्द से आनन्दित होना और अपनी योग्यतानुसार जीवन से अपना भाग प्राप्त करना उनका हक़ है। इसी लिए मुहम्मद सल्ल0 ने फरमायाः " न कोई किसी के द्वारा क्षति पहुंचाए जाने का निशाना बने न कोई किसी को क्षति पहुंचाए"। (इब्ने माजा)

किसी आज़ाद इंसान को उसकी आज़ादी से वंजित करना जायज़ नहीं:

इस्लाम की दृष्टि में हर व्यक्ति आज़ाद पैदा हुआ है उसे अपनी आज़ादी से जहाँ चाहे काम करने का अधिकार प्राप्त है उसे बलपूर्वक अपने क़ब्ज़े में करके माथा रगड़ने पर मजबूर कर देना सब से बड़ा अत्याचार है जिसकी इस्लाम कदापि अनुमति नहीं देता अपितु ऐसे इनसान को बड़ा पापि घोषित करता है। मुहम्मद सल्ल0 ने फरमायाः " तीन आदमी ऐसे हैं जिनकी नमाज़ अल्लाह कुबूल नहीं करता...तीसरे वह व्यक्ति जो अपने आज़ाद किए हुए व्यक्ति को पुनः ग़ुलाम बना ले " (अबूदाऊद) [ मुहम्मद सल्ल0 जिस समाज में संदेष्टा बना कर भेजे गए थे उनमें ग़ुलामों की प्रथा ज़ोरों पर थी जिसका इस्लाम ने खण्डन किया और ग़ुलामों को आज़ाद करने का आदेश दिया, हदीस में इसी की ओर संकेत है ]
ज्ञात यह हुआ कि इस्लामी नियमानुसार हर इनसान आज़ाद पैदा हुआ है इसलिए हर व्यक्ति को अपनी इच्छा और अधिकार के अनुसार काम करने का पूरा अधिकार प्राप्त है। किसी व्यक्ति के लिए किसी तरह जायज़ नहीं कि किसी को उसके इस अधिकार से वंचित कर दे।

मज़ूरों के सम्बन्ध में इस्लामी शिक्षाएं:

अब आइए देखते हैं कि इस्लाम ने मज़दूरों के सम्बन्ध में क्या शिक्षा दी है। 

सद् व्यवहार :

मुहम्मद सल्ल0 ने फरमायाः ये तुम्हारे भाई हैं जिन्हें अल्लाह ने तुम्हारे क़ब्ज़े में दे दिया है। अतः जिस किसी के क़ब्ज़े में अल्लाह उसके भाई को दे दे तो चाहिए कि वह उसे वही खाना खिलाए जो वह स्वयं खाता है। वही कपड़े पहनाए जो वह स्वयं पहनता है। उसके ऊपर किसी ऐसे काम का बोझ न डाले जिसे वह न कर सके। और अगर वह उसके ऊपर किसी ऐसे काम का बोझ डालता है जिसे वह न कर सके तो चाहिए कि उसमें उसकी सहायता करे। (बुखारी)

पसीना सूखने से पहले मज़दूरी दी जाए :

मज़दूरों के सम्बन्ध में इस्लाम की दूसरी प्रमुख शिक्षा यह है कि काम पूरा होने के बाद उन्हें बिना विलम्ब किए मज़दूरी दी जाए। एक हदीस में है " मज़दूर को उसकी मज़दूरी उसका पसीना सूखने से पहले सौंप दो। " (इब्ने माजा)

मज़दूरी पूरी दी जाए:

इस्लाम ने जहाँ मज़दूर की मज़दूरी तुरन्त देने की ताकीद की वहीं इस बात का भी आदेश दिया है कि मज़दूरी पूरी पूरी दी जाए। एक हदीस में अल्लाह के रसूल सल्ल0 फरमाते हैः " तीन आदमी हैं जिनके खिलाफ़ महाप्रलय के दिन वादी बन कर खड़ा हूंगा....तीसरा वह जो किसी मज़दूर को मज़दूरी पर रखे और उससे पूरा पूरा काम ले परन्तु उसकी मज़दूरी पूरी पूरी न दे।" (बुख़ारी)

मज़दूरी निर्धारित कर के काम लिया जाएः

जो कोई मज़दूरी पर किसी को रखे उसे मज़दूरी पहले निर्धारित कर देनी चाहिए। मुहम्मद सल्ल0 की हदीस में है- " जो कोई किसी मज़दूर को मज़दूरी पर रखे उसकी मज़दूरी को पहले बता दे" । (आसार सुनन) 

प्रिय मित्रो! अन्तराष्ट्रीय कामगार दिवस के अवसर पर मज़दूरों के सम्बन्ध में इस्लाम की शिक्षाओं की यह एक झलक थी  जिसे देखाने का अभिप्राय इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं कि आज हमारे समाज में ग़रीबों और बेसहारों के प्रति जो शोषण की मानसिकता बनी हुई है इसका बहिष्कार होना चाहिए यदि समाज का कोई एक वर्ग आर्थिक एवं सामाजिक रूम में सम्पन्न है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह निर्धनों और कमज़ोरों का ख़ून चूसने लगें। इस्लाम ने ऐसे लोगों के साथ दया का आदेश देने के साथ साथ ज़कात अनिवार्य किया और दान पर उभारा है ताकि धनवानो और निर्धनों के बीच परस्पर प्रेम-भाव का चलन हो।   

    

5 टिप्‍पणियां:

Safat Alam Taimi ने कहा…

आज हमारे समाज में ग़रीबों और बेसहारों के प्रति जो शोषण की मानसिकता बनी हुई है इसका बहिष्कार होना चाहिए यदि समाज का कोई एक वर्ग आर्थिक एवं सामाजिक रूम में सम्पन्न है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह निर्धनों और कमज़ोरों का ख़ून चूसने लगें।

अनुनाद सिंह ने कहा…

गुलामी की नींव किसने डाली? इस्लाम ने (स्वयम् मोहम्मद ने)। इसमें दोनो तरह की गुलामी सम्मिलित है - मानसिक और दैहिक।

Safat Alam Taimi ने कहा…

अनुनाद सिंह जी!
इतिहास पढ़ीय तो पता चलेगा कि मुहम्मद सल्ल0 ने आते ही गुलामी का खण्डन किया। गुलामों के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया जबकि आप से पहले अरब में गुलामों को जीने का अधिकार भी प्राप्त न था उनकी हालत दयनीय थी ऐसे ही जैसी स्थिति शुद्र जाति की भारत में थी।

mukta mandla ने कहा…

जब ईश्वर (शक्तिशाली,शरीर-रहित) है तो आज हिन्दू समाज में क्यों मुर्तियों की पूजा की जाती है?
और यह भी कहा गया है कि (न सत्य प्रतिमा अस्ति ईश्वर की कोई मूर्ति नहीं बन सकती)। अब हमने
कैसे ईश्वर की मूर्ति बना ली है? क्या आप हमें इस सम्बन्ध में ज्ञान दे सकते हैं ? धन्यवाद
सफ़त अलेम जी सर्वप्रथम तो मैं आप का एक मायने में प्रशंसक हूँ क्योंकि मुस्लिम
कट्टरवाद से अपवाद आप सब धर्मों को एक मानते हैं .आपने ऊपर का प्रश्न 2008 में
एक ब्लाग पर पूछा था जो मेरा नहीं था..उत्तर..ये मूर्तिया ईश्वर की न होकर
कर्मचारी देवताओं की है ...वास्तव में ईश्वर की मूर्ति या चित्र नहीं बन सकता .
..मूर्ति पूजा आने बाली पीङी को अद्रश्य रहस्यों की ओर आकर्षित करना है..कि
इन्हें जानो .देश और भाषा से धर्म अलग मालूम होता है..अन्दर वह एक ही है
सनतन धर्म ....satguru-satykikhoj.blogspot.com

mukta mandla ने कहा…

अनुनाद जी ने बिना अध्ययन के यह बात कही
है मुहम्मद साह्ब ने सदा प्रेम ही बांटा ..लेकिन
उनके बाद में उनकी पत्नी आशिया और हुसैन
के आपस के टकराव से मुसलमानों में विवाद
(आपस में ) की स्थिति बनी..मुहम्मद साहब
रूह ग्यान से रूबरू हो चुके थे ..