मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

हर बात को आप धार्मिक चश्में से क्यों देखते हैं ?

कुछ सज्जन यह कहते हैं कि  आखिर कुछ लोग हर बात एवं घटना को धार्मिक चश्मे से  देख कर उसे धार्मिक
रंग में क्यों रंग देते हैं।" इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म एक व्यक्तिगत मआमला है, इसे सार्वजनिक रूप नहीं देना चाहिए, परन्तु मैं एक मुस्लिम की हैसियत से इस बात से सहमत नहीं, मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूं। और धर्म एक इनसान की प्रकृति में शामिल है। हम सब का पैदा करने वाला ईश्वर जो एक है जिसके समान कोई नहीं, न उसका कोई भागीदार है, न उसे मानव रूप धारण करके पृथ्वी पर अवतरित होने की आवश्यकता पड़ती है। हाँ ! यह सत्य है कि उसने मानव की रचना करने के बाद उसे यूं ही छोड़ नहीं दिया कि जैसे चाहे अपनी इच्छानुसार जीवन बिताए अपितु मानव में से ही क्रान्तिकारी मनुष्यों को चयन कर के उनका मार्गदर्शन  किया, जिनको अवतार अथवा संदेष्टा कहते हैं, वह हर युग और हर देश में आते रहे, जिनकी संख्या एक लाख तक पहुंचती है। उनको अपने अपने देश तथा समाज हेतु भेजा जाता था। 
परन्तु जब सातवीं शताब्दि ईसवी में यातायात के साधन ठीक हो गए। तथा एक देश का दूसरे देश से सम्पर्क होने लगा तो सम्पूर्ण संसार हेतु अन्तिम अवतार भेजे गए जिन पर क़ुरआन का अवतरण हुआ जो सारे मानव को सम्बोधित करता हैं। उन्हें हम मुहम्मद कहते हैं। कुरआन लोगों को विभिन्न जातियों में विभाजित नहीं करता अपितु एकत्र करता है। उसका सार मात्र एक ईश्वर की पूजा और मानव भाई चारा है। क़ुरआन के अनुसार सारे मानव की उत्पत्ति एक ही मानव आदम औऱ हव्वा से हुई है और उन सब का बनाने वाला भी एक ही है। इस प्रकार इस्लाम मानव का धर्म है परन्तु खेद की बात यह है कि अधिक लोग अपने ही परम धर्म से वंचित हो कर इधर उधर भटक रहे हैं। आज ईश्वर का नाम तो सब लेते हैं परन्तु उसे पहचानते बहुत कम लोग हैं। 
यह भी सत्य है कि हम सब एक दिन अपने  पैदा करने वाले के पास पहुँचने वाले और इस जीवन का लेखा जोखा देने वाले हैं, जिसके आधार पर ही हमारे स्वर्ग अथवा नरक का निर्णय किया जाएगा।
 यदि हमें  इन बातों का ज्ञान है जो सब को सत्य की ओर अग्रसर कर सकती हैं, और हम इन्हें छुपाएं अथवा बयान करने से संकोच करें तो मैं अपने भाईयों का शुभ-चिंतक नहीं बन सकता।

2 टिप्‍पणियां:

dinesh aggarwal ने कहा…

आदरणीय सफत जी, अभिवादन स्वीकार करें।
मार्ग-दर्शन करने के लिये आभार व्यक्त हुये,
क्षमा माँगते हुये कहना चाहता हूँ कि धर्म के
संबंध में मेरा दृटिकोण कुछ प्रथक है। मेरे अनुभव
एवं ज्ञान के अनुसार अफीम की गोली, शराब तथा
तीब्र जहर की तरह है।
धर्म का सेवन करके मनुष्य,
मंदिर-मस्जिद तोड़ता है।
गोधरा में ट्रेन जलाता है।
उसके बाद गुजरात में हिंसा कराता है।
धर्म का नाम लेकर उसे सही ठहराता है।
मेरा मानना है कि ईश्वर का जन्म डर एवं अज्ञानता
से हुआ है, तथा धर्म का निर्माण सामाजिक एवं
आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों ने संगठित होकर,
सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े हुये लोगों पर
अपना अधिपत्य चिर स्थाई रखने के लिये किया
होगा। कालान्तर में वह अपना रूप बदल कर,
आज साम्प्रदायिक रूप ले चुका है।
मैं नहीं मानता कि हमें सुख, शांतिप्रिय एवं नैतिक
जीवन जीने के लिये किसी धर्म या ईश्वर की
आवश्कता है। मानवीयता हमारा स्वभाविक धर्म है,
जो हमें जन्म से ही प्राप्त होता है। हिन्दु मुसलमान
तो हम जन्म लेने के बाद बनते हैं। बनतो भी
इसलिये हैं कि हमारे माता-पिता उस धर्म के
अनुयायी होते हैं। धर्म हमारे सोचने एवं निर्णय लेने
के मूलभूत अधिकारों का अपहरण करता है।
(समयाभाव के कारण आगे फिर कभी)
कृपया मार्ग-दर्शन करें

रविकर ने कहा…

आगामी शुक्रवार को चर्चा-मंच पर आपका स्वागत है
आपकी यह रचना charchamanch.blogspot.com पर देखी जा सकेगी ।।

स्वागत करते पञ्च जन, मंच परम उल्लास ।

नए समर्थक जुट रहे, अथक अकथ अभ्यास ।



अथक अकथ अभ्यास, प्रेम के लिंक सँजोए ।

विकसित पुष्प पलाश, फाग का रंग भिगोए ।


शास्त्रीय सानिध्य, पाइए नव अभ्यागत ।

नियमित चर्चा होय, आपका स्वागत-स्वागत ।।