यदि कमाई का सारा अधिकार कमाने वाले से छीन लिया जाए तो मनुष्य के अंदर कोशिश करने की भावना
नहीं रहती,
खोज-परख की शक्ति
बाकी नहीं रहती. और वह हर्ष व उल्लास नहीं रहता जो इंसान को अपनी कोशिश का नतीजा देख कर
प्राप्त होता है. अगर यह भावना मनुष्य से छीन ली जाए तो इंसान के अंदर अपने माल को
विकसित करने की भावना नहीं रहेगी, उसके जीवन का जोश और उत्साह ठंडा पड़ जाएगा. यही दृष्टिकोण पैदा हुआ था रूस में
समाजवाद के नाम से कि उत्पादन जनता की संयुक्त संपत्ति है, जिसमें सब को बराबर का हिस्सा
मिलेगा, कमाई किसी व्यक्ति
की निजी संपत्ति नहीं होगी .... फिर क्या हुआ?
कुछ वर्षों के बाद
यह व्यवस्था स्वयं अपनी मौत मर गई और संसार में उसका नाम व निशान भी न रहा। इस प्रणाली
की तुलना में एक और प्रणाली आयी जिसका नाम दुनिया ने पूंजीवाद रखा, इस प्रणाली ने व्यक्ति
को उत्पादन का ऐसा मालिक बना दिया जिस में दोसरों का कण बराबर भी अधिकार नहीं रखा गया.
यही वह प्रणाली है जो पूरी दुनिया में आज प्रचलित है, इस प्रणाली के कारण
कुछ लोगों की मुट्ठी में दुनिया की दौलत घूम रही है, लोग वैध और अवैध की परवाह किए बिना पैसे इकट्ठा
कर रहे हैं,
यहाँ एक वर्ग मालदार
से मालदार तर होता जा रहा है तो दुसरा वर्ग गरीब से गरीब तर होता जा रहा है. इसलिए
आज दनिया इस प्रणाली से थक चुकी है और इसके विरोध दुनिया के कोने कोने में प्रति दिन विरोध हो रहा
है।
इन दोनों के बीच इस्लाम ने जो तीसरी प्रणाली दी वह अति उचित प्रणाली है कि न
तो एक व्यक्ति की कमाई को सरकार की संपत्ति ठहराया कि सब को उसमें समान अधिकार मिले
न मनुष्य को अपनी कमाई पर यूं सांप बना कर बैठा दिया कि उसमें किसी अन्य का कोई
अधिकार ही न हो। इस्लाम ने प्राकृतिक व्यवस्था यह दिया कि इंसान अपनी मेहनत से जो कुछ
कमाता है वह उसी की संपत्ति है लेकिन उसके माल में समाज के गरीबों और निर्धनों का भी
अधिकार है। यदि उसकी सम्पत्ति इस्लाम की निर्धारित
मात्रा को पहुंच रही है तो नमाज़ रोज़े के समान उस पर जरूरी है कि अपने माल से एक साधारण
मात्रा में गरीबों के लिए निकाले .... इसी को इस्लाम की शब्दावली में ज़कात कहा जाता
है।
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